परिन्दा
परिन्दा
एक परिन्दा रेंगता हुआ आया, गिरता इधर उधर वो बहुत तकलीफ में था।
बाज़ुओं में उसके एक पंख नहीं था, सफेद था वो, लाल हो गया था नहाकर खून की बारिश में।
दबा चहरा, आधी बंद आँखे, पानी को तरसता आकर गिर गया मेंरे खलिस्तान में,
मैंने उठा लिया अपनी बाहों में, मरहम पट्टी की, कुछ पानी पिलाया।
होश आया कुछ घंटो में तो, वो आस भरी आँखे मुझे ऐसे देख रही थी, अपने घर का पता माँग रही हो जैसे।
उनसे एक बूंद टपकी तो लगा किसी कि कसम तोड़ दी हो जैसे, जैसे टूट गये हों वो हज़ारों सपने,
मैं उसे देखता बस यही सोचता रहा कि अब ये कभी उड़ ना पायेगा,
सवाल करेगा मुझसे, दूसरे पंछियों को अपनी परवाज़ पकड़ता देख कर तो क्या जवाब दूँगा?
एक अाँसू मेंरा भी टपका, जा मिला उसकी आँखो से गिरी शबनम पर, जैसे मोती हो गया।
कुछ हफ्ते बीत गए, ठीक होता गया पर कुछ अब भी तरसाता था उसको,
कई बार अकेले में नुहुफ्ता पंख फडफड़ाता देखा था मैंने उसको।
दिल दर्द से भर सा जाता, उसे छत में बैठे आसमान को देखते हुए,
जिसको वो छूता था कभी अब बस देख ही पाता।
किससे गुस्ताखी हुई थी, बदला था ये किसी का या शौक में काटे थे पर इस नादान के?
खलावत में रूठा पुकार ही तो रहा था खालिक को अपनी मर्ज़ी से तो किसने खंजर से इसका पर छीना था?
क्या गलती थी इसकी, क्या किया था इसने जो इसे जीते जी मर जाना पड़ा।
कुछ माह बीत गए इसे तड़पता देख कर, मैं भी अन्दर से टूट सा गया था,
इस की हश्र पे क्या खुदा को भी अफसोस नहीं होता, जान जा रही थी मेंरी इसकी खामोशी सही नहीं जाती थी।
इसका अपने आप को कहीं कोने में बन्द कर लेना, निहायता रोना मुझ से अब अौर सहा नहीं गया,
मैंने पुरवजों कि पड़ी वो तलवार उठाई और गर्दन अलग कर दी उसके सीने से,
अब मैं अकेला हूँ, रोज़ रोता हूँ पर खुश हूँ कि वो अब नहीं तड़पता,
आएगा फिर से एक दिन वो यकीन है मुझको, उड़ते हुए मेंरे आँगन में मेंरे गम दूर करने कभी,
बस यही सोच सोच के ज़िदगी के पन्ने पलटता हूँ।