पहले सी ज़िन्दगी
पहले सी ज़िन्दगी
ए ज़िंदगी क्या तुम लौट आओगी?
फिर से.. क्या फिर दिख जाओगी
भरे, इठलाते बाजारों में?
सुबह की उस चहल पहल में,
भागते हुए बच्चों के
स्कूल के बस्तों से झांकती हुई,
पार्कों में शाम की सेहत वाली चाल में,
झूलों पर खिलखिलाती किलकारियों में,
दोस्तों में, यारियों में,
सर्द मौसम में
साझा होती हुई चाय की वो चुस्कियां,
क्या फिर दिखेंगी तेरी जमघट वाली मस्तियां,
महफिलों में मिलोगी क्या?
सजे संवरे बारातियों घरातियों की शान में।
क्या फिर सड़कें दोस्तों, रिश्तेदारों के घर तक जाएंगी?
क्या फिर टोलियां होली का हुल्लड़ मचाएंगी?
सुनो...
दीवाली पर संग चलोगी ना?
मिठाइयां बन्टवाने पड़ोसियों के घर।
शाम बेमानी सी हो गई है,
जाने क्यूं मुझ से अनजानी सी हो गई है?
फिर से आ जाओ ना,
गले लगाने पहले की तरह,
ए ज़िन्दगी...