काश ! तू समझ पाती...
काश ! तू समझ पाती...
चुप रहने का नतीजा अभी भी भुगत रहा हूँ मैं ...
सही वक्त का केवल राह देखते तमाशा देखता रहा !
'तेरे हर गुनाह माफ़ किये, तेरी मनमानी सहता रहा...
याद किया न मैंने पुकारा तुझे दोबारा तू जाने के बाद !
खामोशी भी कभी- कभी बहुत कुछ बयां करती है ...
तो कभी- कभी अपनी दुश्मन भी बनती है खामोशी !
तू सिर्फ झगड़ती..ताने मारती रही, मैं संभलने की नाकाम कोशिश...
नतीजा क्या होना था ? साफ सामने मुझे स्पष्ट रूप से दिख रहा था !
अधिकार पाने के लिये पहले अपना फर्ज़ निभाना होता है...
समझने वालों को तो इशारा ही काफी है...ना समझी सबसे बड़ी ग़लती !
रिश्ते तो नाज़ुक, तकलादू होते हैं, माने तो भगवान ना माने तो कुछ नहीं
रिश्तों कि अहमियत तू क्या जाने, तू तो सिर्फ कांटा बनकर चूभती है !
मैं भला क्या करता? फटे आकाश को कब तक सिलाता ?
सात फेरों से नहीं, रिश्ता तो वृद्धिंगत होते हैं विश्वास से प्यार से.!..
काश ! तू समझ पाती यह सब और रिश्ता टूटने कि नौबत ना आती ...
मगर तुझे ना 'तेरी ग़लतियों का अहसास है ...ना .कोई पछतावा !