नवजीवन
नवजीवन
धरा , धूल बन चली नभ से मिलने, धरा से निकल, नभ से निभ जाने को ।
ओस की बूंदों से पलकर, सावन में पल्लवित हो,
हरी - भरी इक बेल पल्लवित हो, नभ की ओर चली ।
कोंपलें, कली पल्लवित हो, कुसुमित हुयी,
धरा और नभ का मिलन फलित हुआ ।
फलो से लदी धूल, धरा की ओर झुकी ,
धूल -धरा से मिल ममत्व को प्राप्त हुयी ।
नवांकुरो के किलोल से, धूल - धरा निहाल हुयी,
नभ - छाया में नवांकुर जीवन धारणा को प्राप्त हुए ।
नभ -धरा के ठहराव मे, सृष्टि की संरचना में,
नव -जीवन पल्लवित हो आनंदित हुआ।
भोर की किरणें जब धरा को छूती,
ऑगन में कपिला ,छौने संग रंभाती।
सुख सवेरा हो ,शीतल उजियारा,
सुवर्ण किरणों संग , जग मदमाता ।
जगमग करती सुवर्ण उषा की किरणें,
नव - पल्लव को , ओस का अर्क दे जगाती।
नवोदय में नवांकुर, नवजीवन को जीते,
धूल -धरा संरक्षण में नवयौवन पाते।
नव कुसुम ,निश्छल,स्वतंत्र हो नभ तले,
भौरों संग इठलाते , प्रणय गीत गाते ।
धूल, धरा, नभ, निहाल हो निश्छल से,
कुमुद, कुसुम , किलोल देख इतराते ।
नवजीवन की ओर अग्रसर नव पल्लव को,
शत् - शत्, आशीष , दे निहारते ।
जीवन की यही रीत पुरानी,
नव पुरातन भये, पुरातन भये नभ।
आच्छादित हो पुरातन से ,
नवजीवन हो पुनः पल्लवित ।
जीवन चक्र यूहीं चलता रहे ,
धरा, धूल, नभ संग संग्रहित ।
नवांकुर , नवकुसुम पल्लवित हो,
जीव ही जीवत्व पर गर्वित हो।
बने फिर इक दूसरे का आसरा,
धूल -धरा -नभ, बने जीवन चक्र हमारा ।
आओ हम सब धरा बचाये,
धूल व नभ संग जीवत्व सजाये ।