प्लेटफॉर्म पर बच्ची
प्लेटफॉर्म पर बच्ची
यह जून की पच्चीस तारीख है
सन दो हज़ार तेरह की
और रात के साढ़े दस बजे हैं
अहमदाबाद रेलवे स्टेशन के
प्लेटफॉर्म नंबर पाँच पर
लगभग बीचो-बीच
एक चौकोर गाढ़ी नीली कथरी पर
एक साँवली-सी बच्ची सलोनी
बरस तीनेक की
नींद में बेसुध पड़ी है
इस तरफ भी और उस तरफ भी
रेलगाड़ी खड़ी है
आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ
इधर से उधर, उधर से इधर
दौड़ते-भागते-लपकते लोगों की
बेतरतीब लड़ी है
बच्ची का पिता
कुछ दूरी पर
अपने संगी-साथी संग
बतियाने में मशगूल है
बच्ची की माँ भी
बच्ची के ठीक बगल में
बक्सों-कनस्तरों-गठरियों की ढेर पर
अपनी पीठ टिकाए
गाढ़ी नींद में समाई हुई है
यकीनन यह निश्चिंतता
परदेस से गाँव जाने की
खुशी में छाई हुई है
दोनों के ठीक ऊपर
एक बूढ़ा पंखा झूल रहा है
उबासियाँ लेता घूम रहा है
एक ए.सी. बोगी
ठीक सामने लगी हुई है
खिड़कियों की काँच से
नीली रौशनी बाहर छलककर
फर्श पर पसरी हुई है
मौसम बेहद गर्म है
और अंदर की ठंढक से
बाहर की गर्मी की
ठनी हुई है
इसी प्लेटफॉर्म पर
यहीं इसी पंखे की
गर्म छाँह में
मैं भी खड़ा हूँ
और सबसे नज़रें बचाकर
बार-बार इस बच्ची को
देख रहा हूँ
और घर पर सोई
अपनी बच्ची के बारे में
सोच रहा हूँ
अहमदाबाद-आसनसोल एक्सप्रेस
अभी इसी पर लगेगी
वे लोग भी शायद
अभी इसी पर चढ़ेंगे
मैं भी इसी ट्रेन में
अपनी सास को बिठाकर
अभी ही घर लौट जाऊँगा
पर इतनी ही देर में
इस बच्ची में
अपनी बच्ची नज़र आने लगी है
इसकी चिंता और
उसकी याद सताने लगी है...