और मदहोश हो जाऊँ सिर्फ आधा
और मदहोश हो जाऊँ सिर्फ आधा
नर्गीसी आँखों के प्याले तले
मनमोहक सी
उड़ेंगी पलके हमारी
के शर्म भूल कर
थोड़ा बेशर्म होने दे मुझको
झुकाई इन पलके से
ओढ़ लूँ तेरी साँसों को
बन जाऊँ मोहिनी एक रात की
दुब जाऊँ तुम में ऐसे
जैसे गंगा की घाट तू
और शाम की आरती मैं
और मदहोश हो जाऊं
सिर्फ आधा
की मैं होश में रहूँ पूरी बेहोश होने तक ।।
कुछ सुश्त, कुछ तेज सी अंगड़ाइयाँ
कुछ दर्द, कुछ बेशुद सी मदहोशियाँ
जले कुछ ऐसे
उन लौह से गुजर कर
और खेले जिस्मों के अंगारे से
थोड़ा बेबाक़ होने दे मुझको
उठी तेरी चिलमन के आगोश में
पिघल जाऊँ तुममे ऐसे
की मेरी हर आवरूओं से
लिए तेरे होठों से नज़्म खिले
हर शायरी में दो साँसों को साँस मिले
और मदहोश हो जाऊं
सिर्फ आधा
की मैं होश में रहूँ पूरी बेहोश होने तक ।।
नई कलियाँ खिल उठी है
रख दे इन्हे
मेरी लफ़्ज़ों पर
और भूल जाने दे सबकुछ
के जुदाईयोँ का दर्द भूल
थोड़ा बेदर्द होने दे मुझको
परत दर परत लपेट ले
ऐसे मोड़ ले अपनी राहें
इन बाजुओं में
थाम ले मेरी मंज़िल
और कैद कर मुझे ऐसे की
बाती के साथ दिया भी जलें
अँधेरी रातों में चाँद
हर रोज चाँदनी से मिलें
और मदहोश हो जाऊं
सिर्फ आधा
की मैं होश में रहूँ पूरी बेहोश होने तक ।।