अर्पण कुमार की कविता 'पुस्तक की दुकान पर'
अर्पण कुमार की कविता 'पुस्तक की दुकान पर'
पुस्तक की दुकान पर
अर्पण कुमार
दिख गई अचानक
पुस्तक की दुकान पर
वह अवशेष-स्मृति
ठंढ अचानक बढ़ गई हो जैसे
रजाई निकलने का
वक़्त न आया हो और
चादर से ठंड जाती न हो
कुछ ऐसी ही स्थिति थी
उस समय
हम दोनों के समक्ष
नियति और मौसम को
काल-फ्रेम में जड़ने की
कोशिश करता मानव-मन
हठात् ऐसे मौकों पर
अनिश्चय में पड़ जाता है
मैंने पूछा, 'कैसी हो?'
छोटे से प्रश्न का आशय
समझ रही थी वह भी
संक्षिप्त ही उत्तर दिया
'अच्छी हूँ।'
औपचारिकता ने
पलटकर वार किया
'तुम कैसे हो?'
मैंने कुछ देर पहले कहे
उसके शब्द दुहरा दिऐ
दो उपस्थितियों के बीच
नहीं थी शेष कोई जगह
किसी नऐ शब्द के लिऐ
किसी दूसरी शुरुआत के लिऐ
......