तनहा
तनहा
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रोज़ जीता हूँ रोज़ मरता हूँ,
ज़ुल्म खुद अपने साथ करता हूँ .
भीड़ में खो गया कहीं शायद,
अपना चेहरा तलाश करता हूँ.
मैं ही मुलज़िम, मैं ही मुंसिफ हूँ,
इसलिए शायद फैसले से डरता हूँ.
सामना हो तो अपना सर झुका लूँगा,
पीठ पीछे तो मैं मुस्कुराता हूँ.
वक़्त भी किस तरह मेहरबान हैं,
ना तो हँसता, ना आह भरता हूँ.
गुनगुनाये नदी मेरे ख्यालों की,
राह से उसकी जब गुज़रता हूँ.
अपने पांव में बांध कर मंज़िल,
मैं सफर यूँ तमाम करता हूँ.