नवगीत
नवगीत
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रात तकिए के नीचे रख कर ही तो हम सोये थे
सुबह देखा तो जाने कहाँ गये ख्वाब जो बोए थे
नींद से की हजारों बातें जो अपनी ही सहेली थी
अनबूझी अनसुलझी मगर फ़िर भी एक पहेली थी
क्या कहते किसी से कि ये नैन कितने रोये थे
जैसे काठ का कोई सीलन भरा बदबूदार दरबा
भारी मन, भारी जीवन, टूटे अरमानों का मलबा
बांध बांध कर गठरी , बोझ कंधो पर ढोये थे
सजाया संवारा करीने से पलकों पर भी बिठाया
काजल का टीका लगा हर बुरी नज़र से बचाया
फ़िर भी डरे डरे और ना जाने कहाँ खोये थे