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Madhumita Nayyar

Others

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Madhumita Nayyar

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सिलसिला

सिलसिला

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ख़ामोश है, बेचैन है,

हैरान और परेशां भी है,

ना किसी से कोई रिश्ता

ना वाबस्ता है,

सब मानो अनजान से ,

बेनाम सब चेहरे,

कभी कोई पहचान

कौंध सी जाती है ज़हन में,

पर ग़ायब हो जाते हैं नाम,

एक से हैं शाम और सहर,

अजनबी सा लगता शहर,

शब का सा अंधेरा दिल में,

घर भी अब बाहरी लगे,

अपना शायद नही कोई, 

सब लगते पराये से,

ना दिन का अंदाज़ा है,

ना वक्त का कोई वजूद,

कभी खुश,

कभी नाराज़,

कभी बच्ची सी नादान,

फुसफुसाती है,

बुदबुदाती है,

ख़ौफ़ है बेनाम सा,

कोई दहशत,

नहीं कर पाये ऐतबार किसी पर,  

अपने बच्चों से भी जुदा है,

अफ़ाक में गढ़ी नज़रें 

ना जाने क्या कुछ तलाशती हैं,

सूनापन है,

ख़ामोशी है

और है कुछ मजबूर से अश्क,

आजिज़ी है,

अज़ाब है अज़ल, 

बेख़बर, बेज़ुबां अफ़साना और

मुसल्सल सिलसिला है।।


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