गज़ल
गज़ल
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ग़म रहा जब तक दम में दम रहा
दम के जाने का निहायत ग़म रहा
मेरे रोने की हक़ीकत जिस पर थी
एक मुद्दत तक वो कागज नम रहा
रोज़ मिलकर भी दिन छोटा लगता था
जितना भी मिला वो समय कम रहा
ज़िंदगी एक ख़्वाब सी बीत रही थी
मैं उसके ख़्यालों में हरदम रहा
उसकी सुरीली बातें ख़त्म ना होती थीं
उसकी बातों में मैं हमेशा हम रहा
वक़्त ऐसा भी आया मेरे प्यार में
मैं उसकी बातों में सिर्फ़ तुम रहा
और कितना पत्थर रख लूँ अपने सीने पर
मेरा तो दिल भी सीने में गुम रहा
चोट अब यह और ना सही जाती है
मेरे तो क़ातिल के हाथ मलहम रहा
अब ना जाने कब मिलेगी मुझको रिहाई
ज़िंदगी में जो मिला वो कम रहा