चालीस पार की औरतें
चालीस पार की औरतें
चालीस पार की औरतें....
संदर्भों से कटी,
अपने होने का अर्थ तलाशती हैं।
रिश्तों में तोलती हैं अपना अस्तित्व,
आस-पास मौजूद चेहरों में
अपने नक्श खोजती हैं।
कभी सोचती हैं...
उम्र की ढलान पर
पकते बालों,
माथे की सिलवटों को कैसे संवारूं?
दिन-ब-दिन सरकती उम्र
के पीछे छूटे पग- चिह्न
मुंह चिढ़ाते,
हंसी उड़ाते,
गए दिनों की याद दिलाते हैं।
अपना ही प्रतिबिंब
अजनबी सा लगता है,
स्थूल होती काया,
झुर्रीदार चेहरा,
एक अनजाना भय बनकर
शिराओं में दौड़ जाता है।
एलबम में जड़ी पुरानी तस्वीरें
अपरिचित-सी जान पड़ती हैं।
चुस्त कपड़ों,
खिजाब रंगे बालों से
करना चाहती हैं भरपाई,
वक्त के खामियाज़े की।
कभी महसूस करती हैं...
पति की अनुपस्थिति
उपस्थिति की तुलना में घटती ही जाती है,
जवान होते बच्चों की दुनिया,
पहुंच से परे मालूम होती है।
बहुत गहरे कहीं कसकती है
तलछट-सी बिखरी अपनी मौजूदगी।
चाहती हैं... कोई तो कह दे कि
तुम आज भी खूब जंचती हो।
तुम्हारे होने से ही मकान
घर हो जाता है,
जब भी छू देती हो
तन-मन महक जाता है।
कोई तो हो, जो दो
पल ठहरकर
हाथों में हाथ गहकर,
मौन बैठे,
आंखों ही आंखों में सहलाए
हाल पूछे।
यूं ही आवारा सी ख्वाहिशें
मन में छिपाए,
बिन पते की चिट्ठी सी
अपनी गुमशुदा पहचान के साए में,
जिए जाती हैं...
चालीस पार की औरतें।