चाँद
चाँद
तुम कहो !
शुरुआत कहाँ से करूँ !
चाँदनी में तुम मदहोश
मेरे चेहरे का नूर
चुराते जा रहे हो
झिलमिलाते पानी में
उदासी नाव डोल रही है
दिल अंजाना
उमंगों से झूम रहा है ।
पर मैं कहीं और खो गयी हूँ
तारों की टोली में
नये सितारों को देख रही हूँ ,
जो कल दूर थे
और आज नज़र नहीँ आते
उन्हे बेसब्र ढूँढ़ रही हूँ ।
पानी पर तैरता
एक अजनबी चेहरा
एक खौफ या ख्वाब
और धूमिल चाँद
एक खामोशी
छाई है.....
नर्म निगाहों में
कुछ सवाल
उबल रहें हैं.....
बेचैन है पल पल
ये नादां मन...
सोच कर..
क्या अब ये चाँद
छू रहा होगा
मेरे प्रदेश की सीमाओं को ?
वहाँ तैनात
जिंदगी के हकदार
ग़ज़ल लिख रहें होंगे --
चाँद पर...
या फ़िर जंग छेड़ रहे होगें ???
अँधेरे तूफां को समेटे
वह सारी हक़ीकत
मेरी झुकी पलकों पर
ठहरी हुई हैं ,
तुम ,चाँद और मैं
डूबे हुए हैं
अलग अलग पंक्तियों में.....
तुम्हे छू कर हल्की सी हवा
गुनगुना रही है ,और
मन मचल रहा है मेरा
उन घायल पंछियों के लिये
जो घर ना लौट पाएँ....
देखो....तुम्हारी
हथेलियों में
ओस की बूंदे हैं
...और न जाने
क्यों मेरी आँखें
भीग रहीं हैं....!!!