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Ankita kulshrestha

Abstract

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Ankita kulshrestha

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जितना जितना तुम बदलोगे

जितना जितना तुम बदलोगे

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सांझ ढले जब रात नशीली लेती होगी अंगड़ाई.. 

और भी ज्यादा तन्हा होकर रोती होगी तन्हाई। 

जितना जितना तुम बदलोगे, उतना ही हम बदलेंगे.. 

या तो हमको शीशा समझो या तो अपनी परछाई।

एक तरफ तो कहते हैं वो जैसे हो वैसे रहना.. 

और कभी वो ही कह उठते क्या है तुम में अच्छाई। 

पानी जैसा अपना जीवन बह जाते मन-भावों में.. 

जैसे सांचे में रख दोगे वैसी होगी ढलवाई। 

हमने खुद को किया हवाले हमसे मत उम्मीद करो.. 

अब बस तुम पर ही ठहरी है इस रिश्ते की गहराई। 

यूं तो अपने सब स्वप्नों का हमने ही दम घोंटा है.. 

जी उठते हैं लेकिन वो सब चलती है जब पुरवाई। 

लोग यहां कहते छिप छिप कर हम को पागल आवारा.. 

रब ही जाने इन बातों में कितनी होगी सच्चाई। 

दुनिया वाले खुद जी चाहे वैसे रंग दिखाते हैं.. 

एक ज़रा बस इश्क़ किया तो कर देते हैं रुसवाई। 

आज अगर है मन अँधियारा असमंजस के बादल हैं.. 

फूल खिलेंगे कभी एक दिन महकेगी सब अँगनाई

 


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