इस्क्रा
इस्क्रा
इस्क्रा
बुझा दो इस्क्रा,
तोड़ दो कलमें,
जला दो किताबें,
काट दो जीभ,
मरोड़ दो शब्द,
भाप बना दो भावों को,
हत्या कर दो प्रेम की,
दूर कर दो इंसान को इंसानियत से,
ख़त्म कर दो इंकलाब को इतिहास से,
बना दो देशद्रोही तुम्हारे विरुद्ध बोलने वालों को,
मिला लो अपने साम्राज्य में वियतनाम, क्यूबा, काँगो
भर लो पूँजी अपने हृदय में,
लील जाओ सावन, झूले, इंद्रधनुष रूप-रंग-रस-गंध
पर
सुनो रे
मालिकों !!
वीरान हुऐ आँगन में चढ़ते गोल चाँद की
अंतहीन चुप्पी के जैसे
तुम्हारे द्वारा बनाई इस व्यवस्था में
अपने बाप के लिऐ नमक से रोटी ले जाता राजू,
धधकती धूप में भूखे पेट रक्त से खेत सींचता परमीत
अधनंगे बदन से कपड़े बुनता इमरान
तुम्हारे महलों के दरवाजों पर अपनी रात काली करता बहादुर
दिये में अक्षर टटोलता किशन
पानी की लाइन खड़ी हुई पिंकी
कूड़े के ढेर से खिलौने बीनता चिंटू
बाँस की तरह पतले पैरों से रिक्शा खीँचता होरी
तुम्हारी बारातों में लाइट उठाता पप्पू
कंधे पे पोटली लिऐ अपना गाँव छोड़ता टिल्लू
नौजवानों पर लाठी उछलता इंस्पेक्टर
किसी कोठे में सज के बैठी चाँदनी
अपने गले में सस्सी डाले खड़ा सोनू
सरहद पर बैठा तेजू
नदी किनारे छोड़ते माँझी
जब
किसी शून्यकाल के अनजाने में अपने-आप प्रश्न कर बैठेंगे
"ऐसा क्यों है"
किसी रोज जब उन्हें इसका सटीक उत्तर मिलेगा
तो धरी रह जाऐंगी तुम्हारी सारी उत्पत्तियाँ
तुम्हारे ये स्वर्ग
तुम्हारे ये नर्क
तुम्हारे ये पुनर्जन्म
तुम्हारे ये ईश्वर
तुम्हारे ये धर्म
तुम्हारे ये राम-बाबर
तुम्हारे ये ख़ाकी नेकर
तुम्हारी ये झूठी संसद
तुम्हारी ये सरहदें
तुम्हारे ये परमाणु बम
और
निकल पड़ेंगे इनके जत्थे उस इस्क्रा को
ज्वाला बनाने ।