अनेक रंग
अनेक रंग
आज़ादी उन ख्वाबों से जो,
रह-रह.कर यूँ चुभ जाते हैं,
माँगना हमें आता नहीं,
छीन तो कैसे ही सकते हैं,
सो अपने आप ही ढ़ूँढ़ लाते हैं।
जिस दिन आँखों में,
काजल न होगा,
अश्क बहेंगे दिख जाएँगे,
उन्हीं अश्कों को पहनकर,
रात भर जलती लौ में सिकते,
काजल से मुँह सजा आते हैं।
नग्न बदन पर कम नहीं है छाले,
कुछ ख़ुद समेट लिये,
कुछ दूसरों ने दे डाले,
उसी बदन को अनेक रंगों के,
साफ़ों से हम ढक आते हैं।
लाख कहे फ़िर चाहे दुनिया,
उफ़ नहीं करते,
भड़कते भी हैं तो,
ठंडा हो जाने के लिये,
अपने हास्य पर,
अपने काजल साफ़े पर ही,
हँस आते हैं।