बेटियों की माँ
बेटियों की माँ
फूल-सी बेटियों की माँ
बिस्तर पर लेटी कमरे की छत को ताकते
या कुर्सी पर बैठी
शून्य में टकटकी लगाऐ
क्या सोचती है हरदम?
कि कल तक घुटनों के बल चलती
किलकारी मारतीं ये बेटियाँ
पढ़-लिखकर
इतने शीघ्र पार कर आईं
शैशव
बालपन
और किशोरावस्था?
अपनी तरुणाई?
जब उसकी हँसी से
झरते थे फूल
और मुस्कान से कौंधती थीं बिजलियाँ
और चलती तो
ठहर जाती प्रकृति थी?
या अपने माता और पिता का
स्नेहिल संस्पर्श
आशीष के रूप में
मस्तक पर?
क्या वह
बेटियों के भविष्य को लेकर
सशंकित है?
क्या उसे भय है
कि बेटियों के
प्यार-दुलार,
मस्ती, निश्चिन्तता
अल्हड़पन के दिनों के
अलविदा लेने का समय
आ रहा-
निकट से निकटतर;
बिना उन्हें
इसकी पूर्वसूचना दिऐ?
क्या बेटियों को पता है
जीवन के कठिन संघर्ष की शक्ल
होती है कैसी?
क्या जीवन के मुखौटे के भीतर
निकट आती
मृत्यु की साँसों की आहट
उसे सुनाई दे रही?
बेटियों का आना
एक उत्सव की तरह है
उनका जाना है
एक अल्पविराम
जहाँ सुख
एक क्षण के लिऐ
करता है विश्राम
और फिर
बढ़ता है आगे
रूपान्तरित हो
दुख के दीर्घ निःश्वास में
कड़ी धूप की
आग उगलती किरणों को
नंगे सिर पर झेलता
जीवन के
अनजाने विचित्र पथ पर
फूल-सी बेटियों की
यह माँ जो कभी
फूलों के सौन्दर्य की
महकती साम्राज्ञी थी
आख़िर यों गुमसुम
एकटक
किसी अनजान दिशा की ओर
क्यों ताकती रहती है हरदम
और क्या?
अपने उत्फुल्ल यौवन में
फूलों-सी ही महकतीं
और ताज़ी हवा में
अपनी सुगन्ध दूर-दूर बिखेरती बेटियाँ
बेख़बर-
आसपास के शूलों से
और
आगे के रास्ते में
आनेवाली विषैली हवाओं,
अन्धड़, तूफान से
क्या इन्हें रत्तीभर अहसास है
क्या सोच रही है माँ
कमरे की छत को
या शून्य में एकटक ताकते?
क्या अनागत काल
उन्हें भी देखेगा
इसी अवस्था में?