वो बादल आवारा नहीं था
वो बादल आवारा नहीं था
उम्र के मध्यान्ह में एक सराबोर बादल
मेरी दहलीज़ पर दस्तक देते खड़ा था !
उसके भीतर का शोर मेरे मन की गलियों में
खलल पहुँचाता डाँवाडोल कर रहा था
कुछ कहना था शायद उसे मुझसे !
मैं अपलक उसे निहारती खड़ी थी
कि असमंजस में कहीं ये बादल आवारा तो नहीं !
अचानक उसने मेरी हथेलियों पर
कुछ शब्द लिख दिए ओर मुस्कुराते खड़ा रहा
मैं हैरानी से असंख्य सवालात से घिरी पढ़ने लगी !
कुछ असामान्य सा ओह
इन शब्दों को कैसे छुपाऊँ,
मेरे समाज की छोटी संदूक सी सोच में कैसे समाऊँ
रख तो लिया मान उस शब्दों का
सर चढ़ा कर एक पाक रुबाई सा !
रात भर मैं सोचती रही
अश्रु की एक नदी निर्मित हुई उस शब्दों को बहा दिया,
और हम दोनों चलते रहे
मैं इस किनारे वो उस किनारे शब्दों की पतवार थामे !
किनारों की लकीरों में मिलन कहाँ
फिर भी खुश थे दूर से ही सही देखना नसीब जो था !
हाँ रात के साये बेकल करते हैं हम दोनों को
पर एक भोर के इंतज़ार में पूरी शब,
न उसे प्यास मिलन की न मैं रहूँ
अधिर सी बस चलते रहते हैं दो किनारे साथ-साथ !