विदिशा में हूँ तुम कहाँ हो कालिदास
विदिशा में हूँ तुम कहाँ हो कालिदास
सुबह-सुबह भी सड़क की धूल
माहौल में कोहरे की तरह फ़ैली हुई थी
मुझे कालिदास से मिलना था विदिशा में।
मैं विदिशा में ही था
कालिदास का पता नहीं था मेरे पास
कि साहित्य के इस वी आई पी का
पता तो कोई भी बता देगा।
मैंने एक स्कूटर वाले से पूछा
कालिदास कहाँ रहते हैं?
वह अपने साथ खड़े
दूसरे स्कूटर वाले से पूछने लगा
“कालिदास तो कोई नहीं है इधर”
है तो इधर है
यह सोचकर कि पानवाला सब जानता होगा
मैंने एक पानवाले से पूछा
उसकी अंगुलियाँ पान लगाने में मशगूल थीं
“ऐसा तो कोई नहीं है इधर
जो यहाँ पान खाने आता हो”
सोचा कि प्रापर्टी डीलर को
ज़रूर पता होगा कालिदास का
“कौन कालिदास? न उसने कभी मकान बेचा न खरीदा”
एक पढ़ा-लिखा मिला
बोला- “उज्जैन में मिलेगा”
“हाँ, लेकिन गया तो यहीं से था”
वह सिर खुजाने लगा
मैंने उदयगिरि जाकर भी मिलना चाहा कालिदास से
कोई जाने तो बताए कि कालिदास कौन है?
कहाँ रहता है?
नाम तक तो सुना नहीं था
विदिशा में विदिशा के बाशिंदों ने।
कालिदास उज्जैन में भी तो इमारतों में कैद है
लोगों की ज़बान पर तो महाकालेश्वर है
बहुत दिनों तक खाक छानने के बाद
मैं घर लौटा
कालिदास मेरे घर में
बुकशैल्फ़ पर आराम से सो रहा था।