दिल-ए-आईना
दिल-ए-आईना
दिल-ए-आईना देखा जब ख़ुदा की नज़र से
तो ख़ुद को ही ख़ुद का गुनहगार पाया
जिसे ढूँढता था मंदिर मस्ज़िद में मैं,
अपने अन्दर ही वो पाक परवरदिगार1 पाया।
क्या वजूद2 है मेरा दुनिया में ख़ुदा के बिना,
जब मैंने सोचा तो उस पर ही ऐतबार पाया।
कभी डरता था मौत से पर जब मैंने जाना,
यही मंज़िल है तो रूह में इसका इंतेज़ार पाया।
जिस आवाज़ को कुचल कर गुनाह करता रहा,
आज उसी को अपना सच्चा मददगार पाया।
दूसरों का ना सोचकर अपने लिऐ ही जिया,
आज ख़ुद को अपनी नज़रों में गद्दार3 पाया।
औरों में अक्सर खामियाँ ढूँढता रहता था मैं,
आज अपना दामन सबसे ज़्यादा दाग़दार पाया।
जब सोचा कि क्या सोचती रहती है मेरी सोच,
तब अपनी सोच को जगह-२ से बीमार पाया।
जब रूबरू4 हुआ दिन रात एक करने वालों से,
उनके आगे आशीष ने ख़ुद को बेकार पाया।
1.God 2.existence 3.traitor 4.face to face