कविता
कविता
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जब तुम मुझे देखो और मैं तुम्हें देखूँ, तो कविता बनती है।
कविता तब बनती है जब मेरी खिड़की की जाली से धूप अंदर छनती है।
जब मेरे बच्चों की किलकारियाँ मेरे आँगन में गूँजती हैं, तो कविता बनती है ।
कविता तब बनती है जब हर वर्ष मेरे बड़े होते हुए बच्चों की सालगिरह मनती है।
जब खेलते कूदते मेरे बच्चे बड़े हो जाते हैं, तो कविता बनती है।
कविता तब बनती है जब उनके भविष्य की चिंता में मेरी भवें तनती हैं।
जब वे अपनी मंज़िल की तलाश और अपना नया आशियाना बनाने निकल जाते हैं, तो कविता बनती है ।
कविता तब बनती है जब हर आहट पर उनके घर आने की उम्मीद बनती है।
जब तुम मुझे देखो और मैं तुम्हें देखूँ, तो कविता बनती है ।
कविता तब बनती है जब फिर से क्रिसमस, होली, दिवाली और ईद बस हम दोनों के बीच ही मनती है ।