काव्यसृजन
काव्यसृजन
क्या शब्दजाल ही,कविता को साकार बनाना होता है ?
भावशून्य शब्दों का बस,आकार बनाना होता है ?
भारतवर्ष जहाँ शब्दों को , ब्रम्ह समान बताया हो ।
महाकाव्य रचकर कवियों ने,काव्यज्ञान समझाया हो ।
पूजा स्थल तक कवियों के छंद , जहाँ पर रहते हों ।
देश जहाँ हम कवियों को ,सूरज से बढ़कर कहते हों ।
क्या केवल शब्दों को बुनकर, हम कवि बनने वाले हैं ?
दिवस दुपहरी मात्र जानकर, हम रवि बनने वाले हैं ?
काव्यदशा को देखो परखो , एक क्लेश रह जाता है ।
शून्य शून्य से मिलता केवल शून्य शेष रह जाता है ।
ब्रम्ह अंश का चित्त धरे हम , छंद सृजन जब करते हैं ।
स्वच्छंद कलम आवेशित कर, कविता में ज्वाला भरते हैं ।
शब्दों को मतिबिंब बनाते , नई विमाऐं गढ़ते है ।
‘महाकुशा’ जिसके उर मंडित,बस वो आगे बढ़ते हैं ।
ओजकवि विजय कुमार “विद्रोही”