ऋतुओं में मैं वसंत हूँ !
ऋतुओं में मैं वसंत हूँ !
आमने-सामने खड़ी
विश्व की विशालतम
दो सेनाओं के बीच
देदीप्यमान कृष्ण ने
संशय-ग्रस्त अर्जुन से कहा,
'ऋतुओं में मैं वसंत हूँ !'
और अर्जुन को
कुरुक्षेत्र का सुदीर्घ मैदान
सरसों के पीले फूलों से
लदा हुआ
कोई अंतहीन खेत
दिखने आने लगा,
दोनों ही ओर
सैनिकों के हाथों में लहराते झंडे
आम के बौरों में बदल गए
चिंघाड़ तो हाथी रहे थे
मगर अर्जुन को उनमें
कोयल की कूक
सुनाई दे रही थी,
वह उत्साह और प्रसन्नता से
भर गया
पल भर में जैसे
अर्जुन के चेहरे पर
छाई उदासी हवा हो गई
उसके मन-पटल पर पसरे
दुविधा के पतझड़ का
अब कोई चिह्न नहीं रहा
वहाँ बोध के
नव-पल्लव लहरा रहे थे,
आशा के
नए पुष्प खिल उठे थे
चहुँओर
सत्य का सौरभ बिखरा हुआ था
विराट से साक्षात्कार कर
उसके भीतर की तुच्छता
सहसा ओझल हो गई थी
उसके भीतर की अकर्मण्यता ने
उसे हमेशा-हमेशा के लिए
अलविदा कह दिया था
निराशा के दुर्दम्य पहाड़
जाने कहाँ अदृश्य हो गए थे
अर्जुन
अपने कर्तव्य-पथ पर
आगे बढ़ने को संकल्पित हुआ
उसे अपने कार्य में आनंद
आने लगा
अपने लक्ष्य-संधान में ही
उसे वसंत का
वास्तविक स्वरूप
जान पड़ा।