सपनों को पाने की सीख
सपनों को पाने की सीख
रुकना चाहता था सपनों की
तरफ चलते चलते,
क्योंकि लगा शायद अब
कोई किनारा नहीं है।
सपने हाथ दिखा कर
बुलाते हुए कहने लगे कि,
तेरे जैसा मुसाफिर
कोई हमारा नहीं है।
बैठ नदियों के पास सोच रहा था
तो उन्होंने कहा,
क्यों सपनों को छोड़कर बैठा है
आखिर यहां?
नदी बहती बिना रूके तुम इससे
एक प्रेरणा लो,
रुका नहीं करते मुश्किलों से
तुम भी ये सीख लो।
आगे चलते चलते मैं मुसाफिर
की तरह गुमराह था,
कहां मेरी राहें और मंज़िल
सबसे मैं अनजान था।
नहीं चाहिए सपनों की उड़ान
सोचकर मैं बैठा रहा,
डाल पर बैठी चिड़िया ने
हँसकर फिर मुझसे कहा,
मैं ठंडी, गर्मी, बरसात हर
मौसम ही उड़ती रहती हूं,
तू भी रुक मत और उड़ते रह
मैं तो यही कहती हूं।
फिर चलते चलते मैं भी
मंज़िल के काफी करीब गया,
इस बार चुनौतियों ने राहों में
एक नया सा मोड़ लिया।
लगा मानो ऐसा बस अब कुछ भी
मुझे करना नहीं है,
सपनों के झंझट में अब
फिर मुझे कभी पड़ना नहीं है।
फिर घड़ी की टिक टिक
ने कहा आजा मेरे पास,
और याद दिलाया मुझे
मेरा सपना था जो खास।
मैं वक्त के साथ चलता रहा
और एक मोड़ आया,
सपनों ने बाहें फैलाकर
मुझे खुद ब खुद बुलाया।
कभी मैं लोगों से सीखता था,
अब लोगों को सिखाता हूं,
सपनों को पाने का मार्ग मैं
अब खुद सबको दिखाता हूं।