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Vikram Singh Negi 'Kamal'

Drama

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Vikram Singh Negi 'Kamal'

Drama

वो ईर्ष्यालु

वो ईर्ष्यालु

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मैं रमा रहा अपने काम में

न जिक्र तारीफ़ में न ईनाम में ,

मैं बेहतर करने की जुगत में

न किसी से मिलीभगत में।


बस एक ही मंजिल की चाह में

लेकर सबको बस उस राह में,

फिर भी मैं गलत और खराब हो गया

मैं निरूत्तर और वो लाजवाब हो गया।


कभी किसी का बुरा सोचा नहीं

जो मिला ये भी सही वो भी सही,

मैं सबको संग लेकर चलने वाला,

दिल की सुन मन की करने वाला।


कमल' दिमाग वालों के लिए

गुलाब हो गया,

जब चाहे तोड़ बैठे

क्या गजब जनाब हो गया।


पानी पानी प्रेम सदभाव उडे़ला

फिर भी द्वेष के कीचड़ में धकेला,

मैं भावनाओं में बह जाने वाला

वो आक्षेप लोगों के सह जाने वाला।


वो नेकी का समन्दर

मैं गंदा तालाब हो गया,

मैं झूठा और वो

सही का खिताब हो गया।


सह लेता हूँ कभी कुछ अनसुना

रह लेता हूँ तभी अनजान बेधुना,

न किसी को बोलने की आदत

न बेवजह ही सुनने की हालत।


मैं बहते-बहते उम्मीदों का

सैलाब हो गया,

वो हमारी कोशिशों से

बन बैठा नवाब हो गया।


मैंने चाहा कि सब छूँए आसमान

जमीन की करना सीख पहचान,

मैं तप की गर्माहट की ओर ले चलूँ

वो धुँए की सी मखमली चादर दिखा।


कदम उठाने को मजबूर करता

मैं जुराब हो गया,

और वो द्वेषी कोहिनूर सा

हीरा नायाब़ हो गया।


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