मेरा मन
मेरा मन
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मैं कुछ बोलता नहीं
तो तुम समझते हो कि
मैं कुछ समझता नहीं
मैं सब समझता हूँ।
इसलिए तो कुछ बोलता नहीं
और मैं सब समझता हूँ।
इसलिए जब तुम मुझे
प्रिय, मित्र, भाई कहकर
संबोधित करते हो
तो मुझे घिन्न सी होने लगती है।
इसलिए मैं खामोश रहता हूँ
और तुम मुझसे कहते हो कि
तुमसे अपनापन नहीं झलकता,
तुम व्यवहार नहीं निभाते,
मेरी समझ ही मुझे
शांत रहने और दूर रहने को कहती है।
तुम्हारी व्यावहारिकता,
तुम्हारा मुस्कराकर गले लगाना
मुझे बहुत खलता है,
क्योंकि मेरी समझ
जो तुम्हारी समझ में
मेरी नासमझी हैं
वो तुम्हारे खोखलेपन को
खोलकर रख देती हैं
और टूट – टूट कर बिखर जाता है
मेरा मन!