मुट्ठी भर आसमान
मुट्ठी भर आसमान
शाम ढले
देख चकित हुआ मन
क्षितिज पर बिखरा हुआ था अनेक रंग
पूछा अंबर से
अब तो रात हो रही है
फिर ढलने से पहले ये रंगों का मेला कैसा
अंबर हँसा
कहा
अंधेरे से पहले सन्नाटा कैसा
ढलने से पहले ही ढलना कैसा
अंबर की ये बातें सुन
हैरान हुआ मन
जब सर उठाकर देखा
नभ के टिमटिमाते तारे बोले
आसमान के सारे राज़ खोले
सिर्फ़ हमें ही नहीं
इसने आँचल में सारे पहरों को है समेटा
मौसम की रंगत को है लपेटा
है शामियाना ये पूरे ज़ग का
तभी तो कहते हैं
शामो सहर सर पर पहरा है आकाश का
आज़ भी चल देता हूँ
नंगे पैर दौड़ जाता हूँ
कहीं दूर नील गग़न में
रात की चादर तले
आसमान की बाँहों में
सितारों की महफ़िल में
सपनों की बस्ती में
उमीद का दामन थामे
कोशिशों का ज़ामा पहने
मंज़िल की तलाश में
बस इसी आश में
कुछ और ना सही
हीरे मोती ना सही
चाँद सितारे ना सही
मुट्ठी भर आसमान तो हाथ आए
मुट्ठी भर आसमान तो हाथ आए