उस रात तुम आई थी प्रिये
उस रात तुम आई थी प्रिये
जब घड़ी की टक टक सुनाई दे रही थी
घोर तम के सुनसान अंधेरे में
जुगनू उस रात के तम से लड़ रहे थे
और अपनी जीत का जश्न मना रहे थे
उस रात तुम आई थी प्रिये
तुम आई तो थी पर कुछ बोला न था
बस मौन सी खड़ी हो गई थी मेरे सिरहाने
मौन होकर भी उस रात तुम
बहुत कुछ कहना चाहती थी
पर शायद रात के सन्नाटे को चीरने का
तुम्हारा कोई इरादा न था।
तुम बस उस सर्दी में कंप कंपा कर मौन हो गई थी।
तुम्हारी उस बेबसी पर मैं कुछ बोलने ही वाला था
पर कान में तुम्हारी फुसफुसाहट की ख़ुशबू ने मुझे ,
मौन रहने का इशारा कर दिया था ।
उस रात के सन्नाटे में ताल से ताल मिलाया था तुमने
मौन होकर जिंदगी का गीत गुनगुनाया था तुमने
उस रात तुम आई थी प्रिये
फड़फड़ाते होठों से जो तुम कहना चाहती थी
वो मेरे भी जहन में था – पर
पर उस पल रुक ही गए थे जज्बात,
जम ही गए थे, जनवरी की उस ठंड में
हमारे जज्बात
उस रात तुम आई थी प्रिये
अभी भी रह गए हैं मेरे तन में
उन चुम्बनों के घाव
जो देकर गईं थी तुम – उस रात
जो मौन रहने का महत्व समझाया था तुमने
अभी भी ताजा है मेरे जहन में
उसी रात की तरह , जब आई थी तुम
सोलह श्रंगार करके, जिंदगी का राग अलापने
मौन का महत्व समझाने
उस रात तुम आई थी प्रिये
जिंदगी का राग गुनगुनाने
इस सदियों से विकल प्यासी धरा को
अपने प्यार के रस से तृप्त करने
हाँ , उस रात तुम आई थी प्रिये
उस रात तुम आई थी प्रिये