मंज़िल
मंज़िल
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धीमे धीमे शाम ढल रही ख़ुशी बनकर
तुम्हारी यादें आ रही ठंडी हवाऐं बनकर
जब तुम मेरे निकट से गुज़री थी तब से
पूरा वातावरण महक रहा ख़ुशबू बनकर
अंधकार ज़िंदगी से अब कोई भय नहीं
दिख गई हो तुम मुझे एक शमाँ बनकर
खिल गऐ नई बहारों के आगमन में सुमन
मेरे मन में छा गई हो तुम शबनम बनकर
खोजते खोजते उलझ गया था इस कदर
भटकता रहा दर दर नादान परिंदा बनकर
ख़ुदा बना दे तुझे मेरी आखिरी मंज़िल
मिलें हम दोनों इस जहाँ में दोस्त बनकर