तू सूरज है
तू सूरज है
ये कोई लक्ष्मण रेखा नहीं
जो हर ली जाएगी तू
किसी अभिमानी रावण द्वारा
इसे पार करते ही।
ये ड्योढ़ी है
तेरे भय की…
समाज के बनाए
ढकोसलों की
गैर जरूरी बंधनों की।
अब साहस कर
और लाँघ ड्योढ़ी
अँधेरा इसके उस तरफ है
पार इसके तू स्वतंत्र है।
क्यों बँधी रहना चाहती है तू?
आरती की लौ से
और मंदिर की घंटियों से
तेरे अंतः में धधकती
उज्ज्वल विचारों की ज्वाला
और मन में चहूँ ओर से
आते सन्नाटे का शोर
क्या उससे है किसी को
कोई सरोकार?
साहस कर
और खोल दे बेड़ियाँ
उन धर्मों की
जिनमें होता आया है
हर रूप में स्त्री का हनन!
क्यों बनी रहना चाहती है तू
सलोनी चाँद सी?
घने बादलों में छिपी
तेरी चाँदनी की शीतलता
स्वयं तुझ तक भी
नहीं पहुँचती।
साहस कर
और लाँघ ड्योढ़ी
सराबोर हो जा
उस प्रकाश में
जिसका श्रोत
स्वयं तू है।
हाँ, तू सलोनी चाँद नहीं
जलता हुआ सूरज है
अभिभूत कर दे
इस जगत को
अपनी रोशनी की
जगमगाहट से।
भस्म कर दे
उन रावणों को
जो भेदते हैं तुझे
लोलुप नेत्रों से।
हाँ, अब तो साहस कर
और लाँघ ड्योढ़ी
क्योंकि तू
सलोनी चाँद नहीं
जलता हुआ सूरज है।