आकाश
आकाश
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आकाश को देखा है हमेशा...
गरजते, बरसते, धूप-छाँव देते
कभी स्नेह कभी आक्रोश
सिर्फ दिया ही है एक पिता की मानिंद!
अचल अडिग।
मतवाले बादलों को भी
पिघला देने की कूव्वत है जिसमें
और बहकने से रोक लेने का हुनर भी।
कितना भी आहत हो हृदय
विदीर्ण होकर भी रहता है दृढ़ कि...
कि ये प्रकृति और इसका
सौन्दर्य ही तो प्रेरणा है
वहाँ से छतरी तानकर खड़े रहने को।