मासूम कन्या की उजड़ी ज़िंदगी
मासूम कन्या की उजड़ी ज़िंदगी
हम तो आज़ाद बचपन में भी
दर्द - ए - घुटन में जी रहे थे
जब पड़ोस वाले भैया खेल के बहाने
अपनी इच्छा पूरी कर रहे थे
छह साल की उम्र में
मैं कहाँ मर्दों के किस्से जानती थी
मैं तो अपने पूरे मोहल्ले को
भाई, चाचा, ताऊ मानती थी
वो टॉफी के बहाने मुझको
दुकान पर लेकर जाते थे
वो मौका पाते ही मेरी
स्कर्ट में हाथ लगाते थे
उनकी हवसी नज़रों को
हम कतई ना जानते थे
हम पप्पी जिसको बोलते थे
वो किस उसको मानते थे
मेरी उम्र की थी उसकी बेटी
वो कहाँ हमको बेटी मानते थे
अपनी हवस मिटाने की खातिर
वो हमको मशीन जानते थे
मेरे मासूम चेहरे को उसने
बेरहमी से कुचल दिया था
नन्ही स्कर्ट को उस दरिंदे ने
आज तार - तार किया था
मेरा बचपन - जवानी सब
आज बिखर गए थे
वो घिनोना काम करके भी
आज निखर गए थे
मम्मी - पापा मेरे टूट गए थे
उनके सारे सपने रूठ गए थे
मैं बयान भी ना दे सकी पुलिस को
उससे पहले मेरे प्राण छूट गए थे
मम्मी ज़मीन पर सिर अपना
रो - रो के पटक रहीं थी
पापा की साँसे आज
हलक में अटक रही थी
मैं कभी जन्म ना लूँ धरा पर
कफन को ओढ़े सोच रही थी
कोख में मैं मर जाती ठीक थी
अपने भाग्य को कोस रही थी...।