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Sukanta Nayak

Tragedy

5.0  

Sukanta Nayak

Tragedy

बदल रहा जमाना

बदल रहा जमाना

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641


जब कभी कुदरत बनी होगी

ईश्वर ने कुछ ना कुछ अच्छा ही सोचा होगा

प्राकृतिक सौंदर्य को संवारने 

जरूर इंसान बनाया होगा।


कितनी खूबसूरत है ना ये नदियां

सुमधुर गुंजन मन मोहती 

जैसे कोई हसीना

कितनि हसीं ये वादियां

रम्य रस बरसती मद मस्त 

जैसे पलमें गुजरती सदियाँ।


सुरीली आवाज़ें पक्षियों की

एक अलग ही आकर्षण की जरिया।

कहाँ है वो दिन 

मिट्टी की खुशबू हवाओं का स्वाद।


पूछी बूढ़ी दादी बच्चों से कहां है वो दिन

दिन व दिन बदल रहा जमाना हो रहा विकास

कच्चे रास्ते पक्के हो रहे 

ऊंची इमारतें बन रही। 


हर एक गाँव शहर हो रहा

हो रहा विकास।

इसी विकास में तो नहीं कहीं

छूट रहा अपना अस्तित्व।


इंसान से पशु हो रहे 

नासमझ से खुद को रोंद रहे

अब शर्मिन्दगी भी नहीं खुद पे

कैसे बचाएंगे अपना अस्तित्व।


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