उजालों भरी सुबह
उजालों भरी सुबह
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धूप का इक नन्हा कतरा
रोज़ सुबह
मेरे घर के अहाते में
चुपके से उतर आता है
बिना किसी आहट के
बस कुछ ही पल में
दे जाता है
अहसास अपने होने का
मगर मेरा गाँव
अब शहर होने जा रहा है
साँप की तरह फन उठाऐ
कोई इमारत
निगल जाऐगी
धूप के इस कतरे को
इसीलिए सँजो रही हूँ इसे
अपनी डायरी के पन्नों में
ताकि आने वाली पीढ़ी को
बता सकूँ
कभी इस घर में भी
हुआ करती थी
उजालों भरी सुबह