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Jyoti Agnihotri

Classics

4.6  

Jyoti Agnihotri

Classics

संस्कृतियाँ

संस्कृतियाँ

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232


दो संस्कृतियाँ

आपस में मिल रहीं,

हतप्रभ हैं और

अचरज से भरी आँखें,

आँखों ही आँखों में न जाने,

कितने ही प्रश्न बुन रहीं।


दोनों ही के बीच,

मौन भी है रीत रहा,

आज!

डर-डर को है जीत रहा

समय के इस लघु विराम,

पर दोनों ही हतप्रभ हैं

न जाने किन आशाओं-

निराशाओं को परस्पर

विश्वास से हैं सींच रहे।


दो संस्कृतियाँ

समांतर पर खड़ी हुई,

इस कालखण्ड में दोनों ही

आश्चर्य में हैं मढ़ी हुईं।


एक वो जिसने अभी-अभी

धरा पे पदचाप की है,

और दूजी ने ब्रह्माण्ड

में ललकार की है।


इक ने अभी-अभी धरा

पर सिर उठाया है तो

दूजी ने चन्द्र का भी

व्यास पाया है।


आज!

प्रकृति और समय ने

उन्हें जीवन का

वृहद आश्चर्य दिखाया है।


अपने-अपने

कालखण्ड का

जामा पहने उन्हें

इस क्षण से

अभिमुख कराया है।


न जाने क्या कहने

क्या सुनने को

हैं जड़मति दोनों,

खड़े हुए इस

समय-श्रृंखला में

हैं दोनों ही बंधे हुए।


यह क्षण, यह कालखण्ड

है दोनों ही के लिये

विलक्षण अनुभव,

आज धरा पे

दोनों ही ने

मनुज का नया

ही प्रारूप पाया है।


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