किन्नर
किन्नर
न तो नर न तो नारी,
अधूरा जीवन
जीने की लाचारी
कहलाता है वो किन्नर
क़ुदरत का अभिशाप पर
शुभाशीष सबको देता है
समाज द्वारा ठुकराया गया
एक अलग ही
दुनिया में रहता है
तिरस्कार की नज़रों को
सहता है, फिर भी
कुछ न कहता है
ख़ुशी के मौके पर
नाच गा कर,
तालियाँ बजा कर
ख़ुद भी ख़ुश हो लेता है
महफिल की रौनक,
बिना इनके अधूरी है
जन्म बच्चे का हो या हो
कहीं विवाह या
फिर हो गोद भराई
पहुँच जाते झटपट क्योंकि
इनके बिना न रस्म
कोई भी पूरी है
वज़ूद की तलाश में,
अपनेपन की आस में
भटकता गली गली
अपने ही अंदाज़ में
डरते लोग इसकी बद्दुआ से
लेकिन उसका ख़ुद का
जीवन ही है एक बददुआ
न इनको ठुकराओ,
गले से लगाओ
न दिल इनका दुखाओ