रचनाएँ
रचनाएँ
सुनसान वो जगह थी
खामोशियों में डूबी
दुनियाँ का एक हिस्सा
दुनियाँ से आकर रूठी
एक रात मैने देखा
एक स्वप्न जिन्दगी का
बलि दे दिया हो जैसे
दुनियाँ की हर खुशी का
ये चीख चीख करके
कौन रो रही है........
क्यों सिसकियों में अपनी
दुनिया डुबो रही है
जब पास जा के देखा
सिसकती आत्मा थी
नारी थी एक ऐसी
एक ऐसी वो अबला थी
पहने हुए थी कपड़े
चिथड़े लटक रहे थे
तन उसके सूख कर के
काँटो से हो गये थे
आहट को सुन के मेरे
खामोश हो गई वो
जब मैंने उससे पूछा
क्या नाम है तुम्हारा?
जिन्दगी से रूठ कर
क्यूँ मायूस हो गई हो
अपना नहीं है कोई
दुनियाँ में क्या तुम्हारा
सिसकियों को रोक कर
अपने तडप उठी वो
आंखों में लेकर आँसू
सीने में दर्द लेकर
खामोशियों को चीर कर
जैसे चिल्ला उठी वो.......
नारी हूँ मैं न अबला
ना मौत हूँ ना जीवन
चारों तरफ है फैली
एक बेबसी के जैसी
सब देखते हैं मुझको
घृणा की दृष्टियों से
मेरा रूप है घिनौना
मैं दरिद्रता की देवी
गरीबों को मैंने घेरा
अभिव्यंजना का खेल है
या प्रेम बन्धन.............
देखता है मन तुम्हें
धर धैर्य चितवन
कलकलाती मधुर धाराओं
का संगम......................
तुम हो मेरे प्रेम कोकिलाओं
का गुंजन......................
सरसराती मधुर पवन
का है व्यंजन...........
खिलखिलाती कुसुम
का है, प्रेम उपवन
जिन्दगी में तुम बसे हो
खुशबुओं का बन के
मधुबन..................
आसमाँ से बूंद गिरता
हो ज्यूँ छमछम..........
भीग जाये प्रेम रस से
जैसे तनमन...............
आत्मा से आत्मा का
बन्धा ये बन्धन........
कैसे टूटेगा भला
ये प्रेम बन्धन
मैंने जिन्दगी में जाने
खाई है कितनी ठोकर
हर बार बस यही सोचा
मायूसीयों में खोकर
अगले कदम पे सम्भलूं
खाकर के शायद ठोकर
उम्मीद है कि अब भी
जग जाऊँ शायद सोकर
दुनियाँ ने मुझको रोका
हर बार जैसे टोका
दुनियाँ की हर खुशी से
खाया है मैंने धोखा
इक जिन्दगी में सोचा
लम्हे गुजार दूँगी
इस जिंदगी को शायद
अब फिर सँवार दूँगी
अब तलक तो मैंने
एक ख्वाब ही था देखा
कभी जिंदगी में बदले
किस्मत की ये भी रेखा
जितनी खुशी थी पाई
सब रख दिया है खोकर
मैंने जिन्दगी में जाने
खायीं है कितनी ठोकर
शराफ़त का चोला ओढ़े
शक्ल ले रक्खा है
शरीफों का ..............
इंसान की खाल में
भेड़िया घूमा करते हैं
सरे बाजार मिल जायेंगे
कदम कदम पर ...........
अमानुष ,बहुरुपिये
और फरेबी .................
अपनी हिफाजत हमें
खुद करनी होगी ...........
अपने स्वावलंबन को
अपना हथियार बनाना होगा
अब और कुछ ना सोचो
ना पीछे हटो ..................
अपने कदम को आगे
बढ़ाना होगा ...................
सब एक साथ
कदम से कदम मिलाकर
तो देखो .........................
पर्दाफाश कर के
बेनकाब कर दो
स्वयं छट जायेगी
ये धुंध और ये घुप्प अंधेरा
पेड़ों की टहनियों से
जब छन कर
सूरज की किरणें
धरती पर पडेंगी
तो फिर होगा पवित्र
निर्मल और उज्ज्वल सवेरा ।।।
जीवन मानव का
क्यों ???
प्रश्न चिह्न है बना हुआ
जीने के ढंग हैं
पृथक पृथक
फिर भी जीवन में
उथल पुथल
कहीं शून्य
कहीं मरघट सा
विरान चमन
श्मशान सा सन्नाटा
खुशियों और रिश्तों का
जीवन से टूट गया नाता
इस पर भी हम कहते हैं
कि जिन्दा हैं
किस अर्थ में?
जीवन को करते
हम शर्मिन्दा हैं
जीवन के उलझन का
क्या कोई अंत नहीं
प्रेम का इस जीवन
क्या कोई अर्थ नहीं
क्या जीवन का
उत्थान पतन
बस यहीं और यही है ????
सर्वोच्च शिखर सा
छितिज के मिलन सा
प्रकण्ड प्रेम का
अगाध स्नेह का
विलुप्त नहीं होगा कभी
उत्कृष्ट प्रेम का
वर्चस्व रहेगा सदा
यादों का संग्रह है
असिमीत प्रेम
अमूल्य अतुल्य
अद्भुत स्नेह है
अवचेतन मन में
आदर्श अदृश्य छवि है
अस्तित्व तुम्हारे नेह का
सम्पूर्ण और समृद्ध है
हृदय तुम्हारे नेह से
अकाट्य अखण्ड प्रेम का
सर्वोत्तम उपहार है
विस्मृत हुई यादें
नि:शब्द अव्यक्त है ।।।
झुरमुट से झांकती
तेरी चंचल निगाहें
बगिया में महुआ तले
बैठ कर तेरा
बेसुध हो जाना
अमुआ का बौराना
और तेरा इठळाना
सब कुछ मुझे
याद है
कच्चे अमुआ को
तोड़ कर खाना
माली के आहट से
झट से भाग जाना
घबराकर ओढ़नी
सम्भालना
और दौड़ते हुए
लडखडा जाना
सब कुछ मुझे याद है
पलाश के फूलों से
खेलना
और रंगोली बनाना
तेरा मुस्कराना
तेरा इतराना
रूठ कर मुझसे
दूर जाना
और फिर आकर
मुझसे लिपट जाना
सब कुछ मुझे याद है ।।
झीनी सी वो साड़ी
जर्जर सी हो गयी
कितनी पुरानी
और मलीन लगती है
सूई और धागे से
सिल नहीं सकती
क्योंकि जर्जर हो गई है
झीनी सी ये साड़ी
क्या ढक पायेगी मेरा तन
जो दर्शाती है
मेरी असहायता ,विवशता
दरिद्रता और गरीबी
जो अपना ही
अस्तित्व खो चुकी है
क्या ढक पायेगी
मेरा तन ................
झीनी सी वो साड़ी !!!???
मैं खजूर 🌴 इतराऊँ
अपनी उँचाई पर
मै ताड़ और नारियल
लहराऊँ इस गुमान में
फलों से लदे हुए
आम ,अमरूद ,🍎सेब
और अनार
अपने घमण्ड में चूर
एक छोटी सी आँधी आई
और मैं .......................
अस्तित्व विहीन हो गई
..................................
फिर मैं तुलसी बनी
ना कोई गुमान
ना अहंकार ना
कोई घमण्ड
आँधी आये या तुफान
अडिग और स्थिर हूँ
प्रभु के चरणों में
चढ़ाई जाती हूँ
और पूजी जाती हूँ ।।।
(10)
कलुषित इतिहास
.......................
.......................
सहनशीलता भी काँप उठी है
तेरी दुष्कृत्य कृत्यों से
जग से मुंह छुपायें कैसे
डर लगता है जीने में
भारत माँ भी है शर्मिन्दा
तुझ कपूत के जनने से
हर नारी अब डरती है
तेरी जननी बनने से
असंतुलित वातावरण में
अब मुश्किल है
पल भर लेना साँस
जगत कर रहा आज भर्त्सना
मानवता का हो गया है ह्रास
क्यों कर तुले हुए हो तुम
रचने को कलुषित इतिहास ।।।।