नारी
नारी
स्वार्थी मैं हो न पाई,
जी भी न पाई खुद के लिए।
त्रेतायुग में न थी अपनी,
जी न पाई द्वापर में भी,
केवल अपने लिए।
युगों से जीती आ रही हूँ,
लहू के आंसू पीती आ रही हूँ,
केवल और केवल औरों के लिए।
रूप है मेरा महौषधि,
सेवा धर्म है महोदधि।
वक़्त ही नहीं असहिष्णुता के लिए,
तिल-तिल जलता है हृदय मेरा,
बेवक़्त बुढ़ा जाती हैं भावनाएँ मेरी।
फिर भी जीती हूँ मैं,
विवशता के साथ।
बिलखती है मेरी आत्मा,
मुक्ति पाने की आशा से।
अभिमन्यु बन जाती हूँ,
चक्रव्यूह में फंसकर।
वात्सल्य, ममता, प्रेम, दया...,
इत्यादि, महारथी,
घेर लेते हैं मुझे,
और मर जातीं हैं इच्छाएं मेरी।
रातें कहीं सो जाती हैं,
खो जाते हैं सपने भी कहीं।
माया रूपी जाले मकड़ियों के,
जकड़ लेते हैं मुझे,
अकड़ जाते हैं अंग मेरे।
फिर भी आँखे मूंद कर,
नया सपना बुनती हूँ मैं,
सतरंगे इंद्र धनुष का।
पराजिता निर्यातित होकर भी,
पी जाती हूँ आंसुओं को,
बांध लेती हूँ इच्छाओं को।
इतने दुःख इतनी यातना सोखकर,
बन जाती हूँ मैं शापित अहल्या,
इसी प्रतिक्षा में कि,
कभी तो आएगा राम मेरा,
मुझे उबारने के लिए।
प्रतिज्ञाओं को ओढ़ कर,
बन जाती हूँ भीष्म,
और दुनिया देती है मुझे शरशय्या,
इच्छा मृत्यु का लालच देकर।
पर मेरी मृत्यु भी है कहाँ?
मैं ही हूँ सप्तसिंधु,
मैं ही हूँ मंदर ,और
मैं ही हूँ वासुकि।
मथती हूँ अपने आप को।
अमृत किसी और को दे,
पीती हूँ विष मैं खुद।
बनकर मुक्तकेशी,
प्रतिशोध की आशा लिए,
अनेक दूर्योधन और दुशासनों के मध्य,
ढूंढती हूँ मेरे प्रिय भीम को
शायद बंध जाए वेणी मेरी।
ढूढती हूँ सखा कृष्ण को,
शायद बच जाए लाज मेरी।
मैं सर्वसहा धरती,
मैं जया, जननी, भगिनी।
बदल जाती है काया मेरी,
फिर भी नहीं बदली हूँ मैं कभी।
अनेक बार, बार-बार,
मैं जीती हूँ औरों के लिए।
जीती रहूंगी अनंत युगों तक।
मैं प्रेममयी, वात्सल्यमयी।
मैं ममतामयी, करुणामयी।
मैं हूँ नारी!
मैं हूँ नारी!