आत्मबोध
आत्मबोध
एक बगिया में था एक पंछी
कुछ अलग सा, था कुछ अतरंगी !
नीरव एकाकी उसको भाए
जाने क्यों वह हर सबसे घबराए !
सब करते उसका परिहास
हर पल छूटे उसकी आस !
सिखलाते उसे सब दुनियादारी
अलग ही समझे उसे बगिया सारी !
गलत सही में पड़ा अकेला
लगे बेगाना अपनों का मेला !
सब्र की सीमा टूटी उसकी
लगी ये बगिया झूठी उसकी !
उड़ चला वह बगिया से एक दिन
पंख फैलाये फिरता हर दिन !
घूमा तब वह क्यारी - क्यारी
तब पाया ये दुनिया है प्यारी !
देख इसे वह हुआ अचम्भित
पाया खुद में कुछ भी नहीं है कल्पित !
जिन बातों से रहता था हैरान
अब वही थी उसकी खुद की पहचान !
दे दिया निज जीवन को नया आकार
खुद से किया खुद का साक्षात्कार...।