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Niharika Singh (अद्विका)

Others Tragedy

5.0  

Niharika Singh (अद्विका)

Others Tragedy

नारी

नारी

2 mins
439


युग युग से मैं शोषित जननी होकर भी,

युग युग से मैं व्यथित पूजनीय होकर भी।

मैं पूजी जाती हूँ देवी के रूप में,

शक्तिदायिनी के रूप में,

कल्याणकारिणी के रूप में,

देकर इतना सम्मान फिर क्यों

मैं लांछित हूँ, तिरस्कृत हूँ ,

मानव तेरे इस समाज में।

कभी मैं छली गई सतयुग में सीता के रूप में,

भुगतती रही उस दंड की पीड़ा जो मैंने की ही नहीं।

अग्नि परीक्षा देने के पश्चात भी त्याग दिया स्वामी ने मुझे।

जलती रही मैं विरह वेदना में उर्मिला के रूप में,

चौदह वर्ष अपने प्रियतम से दूर रहकर।

किस भूल का दंड मिला था

मुझे इस बात से रही मैं अनभिज्ञ।


मैं कौशल्या के रूप में पुत्र वियोग का

दंश सहती रही चौदह वर्षों तक।

यह मेरे किस भूल का दंड था,

जो मेरी आँखें तरसती रही

मेरे पुत्र का एक झलक पाने के लिए।

अहिल्या के रूप में मैं शापित हुई

अपने पति के द्वारा निर्दोष होकर भी।

एक शीला खंड में परिवर्तित होकर

युगों प्रतीक्षा करती रही,

प्रभु रामचंद्र के चरण रज की।

द्वापर युग में मैं द्रोपदी बन

शीलभंग की यातना सहती रही भरी सभा में।

मेरे ही स्वामी ने मुझे दाँव पर लगा कर

तोड़ दी थी सारी मर्यादा की सीमा।

कुंती बन मैं, रानी होकर भी

व्यतीत करती रही महल से बाहर

एक दासी सा जीवन।

गांधारी बन मैं महलों में भी

शांति ना पा सकी।

सौ पुत्रों को खोकर भी

जीना पड़ा, मुझे एक शापित जीवन।

स्वर्ग में भी मैं शोषित थी

अप्सराओं के रूप में।

मेरे सौंदर्य का मधु रस पीकर

आनंदित होते रहे देवता गण और..

मैं एक संपूर्ण नारी न हो पाने की वेदना लेकर

तड़पती रही जीवन भर।

आज कलयुग में भी

मैं शोषित हूँ यहाँ वहाँ।

महलों में,

कुटिया में,

माता के रूप में,

बहन के रूप में,

भार्या के रूप में,


क्या शोषित होने के लिए ही

मेरा जन्म हुआ इस धरा पर?

मेरा सृजन क्या केवल

इसलिए किया तूने विधाता,

की समाज के संतुलन का भार

अपने कंधों पर लेकर

चलती रहूं युग युग तक।

जब मैं अपनी इच्छा से पंख फैलाकर,

उड़ना चाहती हूं खुले आकाश में,

मेरे पंख काट कर पहना दी जाती है

पैरों में बेड़ियाँ और डाल दी जाती हूँ

एक पिंजरे में।


मैं विवश हो जाती हूँ पुनः एक बार,

घर के पिंजरे में

छटपटाने के लिए।

कभी मेरे बढ़ते कदम को

रोक दिया जाता है

यह कहकर कि...

तुम सुरक्षित नहीं हो

इस मानव समाज में।

मानव होकर भी मानव समाज में

क्यों हूँ मैं असुरक्षित?

और.. धरती माता भी तो

शोषण का शिकार है।

कितने व्यभिचार, अनाचार हो रहे हैं

उनकी ही छाती पर।

फिर भी वह विवश है

सब कुछ सहने के लिए।

सदा ही नारी के साथ

यह विवशता क्यों...???

आज आधुनिक युग में

मैंने नारी सशक्तिकरण का स्वर मुखर किया

तो मेरे चरित्र पर लगे कई प्रश्न चिन्ह।

तोड़ना चाहा पाँव में पड़ी

विवशता के जंजीर को,

तो उच्छश्रृंखला होने की संज्ञा से

विभूषित की गई,

क्यों..???


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