श्री रामधारी सिंह दिनकर (श्रृद्धांजलि)
श्री रामधारी सिंह दिनकर (श्रृद्धांजलि)
क्या लिख्खूँ गद्दारों पर,ये कलम न लिखने देती है ।
महाकुशा इस उर के , कोई भाव न बिकने देती है ।
हत्यारे अब राष्ट्रकवि की , जात सूँघने निकले हैं ।
द्वंदगीत , हुंकारों की , औक़ात ढूँढने निकले हैं ।
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जिनका अक्षरकोष समूची , राजनीति पर भारी है ।
जिनके छंदों का ये पूरा , काव्यजगत आभारी है ।
जिनका गर्जन तप्त वज्र था, सरस्वती की वाणी थी ।
माँ हिंदी के अमरपूत की, हर रचना कल्याणी थी ।
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अनललेख का पालक था, वो ओजप्राण था हिंदी का ।
अतिदिव्यपुंज था माँ भाषा की, महिमामंडित बिंदी का ।
कवि दर्पण कहलाता है, जनमानस के अधिकारों का ।
हर शब्द घोष करता है, सारे कारों का, प्रतिकारों का ।
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दौलत के लालच में हम, सम्मान नहीं बिकवाते हैं ।
हिंदसमर्पित जीवन है , अभिमान नहीं बिकवाते हैं ।
आँचल का माँ के मोल लगा बैठे हो,तुम क्या जानोगे ।
“समर शेष है”! लगता अब , होगा यह तब ही मानोगे !
- राष्ट्रवादी कवि विजय कुमार विद्रोही