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Rajeev Thepra

Abstract

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Rajeev Thepra

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शहर निगोड़ा

शहर निगोड़ा

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बंजारों की बस्ती में

आवारा फिरते पाँव

शहर की भूलभुलैया में

ढूंढते अपने गाँव

शहर निगोड़ा खाए सबकी

संवेदनाओं की छाँव

सुबो से रात तलक भागे

मिले न कोई भी ठाँव

घर से ऑफ़िस,ऑफिस से घर

रोज की ये दिनचर्या

दिखे न आसमां और इक धूप भी

भूले ताल-तिलैया

ऊपर से ये फ़्लैट-संस्कृति

जाने न कोई इक-दूजै को

इक दीवार से बंटे फ़्लैट मगर

पहचाने न कोई किसी को

मन मगरा मगर हर पल ढूंढ़े

प्यारी सी कोई छाँव

धन कमाते-तिजोरी भरते

मन को न भाए ये सब

बैंक-बैलेंस और ऍफ़-डी आदि

ख़ुशी के विरोधाभास

सुबह से शाम तलक मगर हम

करते यही सब भर उम्र

अच्छे-खासे इस जीवन का

बना ही डालते चूर्ण

अब तो कोई आस नहीं कि

बदलेगा ये सब

गाड़ी-बंगला,धन और दौलत

हम मांगे बस ये सब

दुनिया को सुन्दर बनाए रखने की

बातें हैं पांखड

असल में हम सब पल-पल,दिन-दिन

होते जाते खंड-खंड !!


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