शहर निगोड़ा
शहर निगोड़ा
बंजारों की बस्ती में
आवारा फिरते पाँव
शहर की भूलभुलैया में
ढूंढते अपने गाँव
शहर निगोड़ा खाए सबकी
संवेदनाओं की छाँव
सुबो से रात तलक भागे
मिले न कोई भी ठाँव
घर से ऑफ़िस,ऑफिस से घर
रोज की ये दिनचर्या
दिखे न आसमां और इक धूप भी
भूले ताल-तिलैया
ऊपर से ये फ़्लैट-संस्कृति
जाने न कोई इक-दूजै को
इक दीवार से बंटे फ़्लैट मगर
पहचाने न कोई किसी को
मन मगरा मगर हर पल ढूंढ़े
प्यारी सी कोई छाँव
धन कमाते-तिजोरी भरते
मन को न भाए ये सब
बैंक-बैलेंस और ऍफ़-डी आदि
ख़ुशी के विरोधाभास
सुबह से शाम तलक मगर हम
करते यही सब भर उम्र
अच्छे-खासे इस जीवन का
बना ही डालते चूर्ण
अब तो कोई आस नहीं कि
बदलेगा ये सब
गाड़ी-बंगला,धन और दौलत
हम मांगे बस ये सब
दुनिया को सुन्दर बनाए रखने की
बातें हैं पांखड
असल में हम सब पल-पल,दिन-दिन
होते जाते खंड-खंड !!