तीन बहनें
तीन बहनें
तीन बहनों वाले
एक घर में
करता रहता हूँ फोन
देर रात, तड़के सुबह
जब कभी
भूला दें अगर
मामूली बेमतलब सी
दोस्ती को तो
नहीं है कुछ भी रिश्ता
उनके साथ मेरा
‘छोटी’ को तो
देखा भी नहीं मैंने
आज तक
बड़ी हमपेशा है
और मझली
रह चुकी है सहपाठिन
बहुत कम याद फ़ोन नंबरों में
एक नंबर है उस घर का भी
मेरी जुबान पर
बैसाखी नहीं लेनी पड़ती
डायरी की
उस घर तक जाने के लिए
बातें करता हूँ
संकोचपूर्वक
अधिकार से
निराशा में,
खुशी के क्षण-विशेष पर
धीरे-धीरे
और ज़्यादातर जोर से
तीनों के मिज़ाज
अलग-अलग हैं
बड़ी को ‘आप’ कहता हूँ
और छेड़ता हूँ
‘तुम’ के अंदाज़ में
छोटी, कहने भर को है छोटी
ज़्यादातर फ़ोन उठाती है वही
बड़ी या मझली को फ़ोन पर
आने तक
होती है उससे बातचीत
कई बार उन दोनों के
न होने पर
अपनी प्रलाप-अवधि का कोटा
पूरा करता हूँ उस ‘बेचारी’ से
वह ‘बेचारी’ कई बार
बना डालती है ‘बेचारा’ मुझे
अच्छा लगता है
उससे परास्त होना
उसकी अनौपचारिकता में
पाता हूँ
लड़की में प्रचलित
सहमेपन का निषेध
मझली सोच-सोचकर
नपी-तुली बात करती है
संकेत भर देकर
एक चतुर खिलाड़ी की तरह
गेंद हमेशा सामने वाले के
पाले में डाल देती है
संवेदनशीलता और शब्दों के बीच
संतुलन साधे रखती है वह
सोचता हूँ
सोचना अच्छा लगता है
निष्प्रयोजन
उनके,
उनके घर के बारे में
बाकी घरों की तरह
परेशानियाँ वहाँ भी होंगी
लेकिन कोई एक सरोकार है
ऊष्मा बरकरार है
उनमें लोगों के प्रति
एक जीवंतता जो
खीझ और निराशा को
अल्पांश ही जगह
लेने देती है
उस घर में
अवसरवादिता से परे
विश्वास और
सौहार्द की लेन-देन
मर्यादाओं के भीतर
कर पाता हूँ फोन
तभी तो
कुंआरी बेटियों से भरे-पूरे
इस घर में
धड़ल्ले से
सोचता हूँ
सोचना अच्छा लगता है
निष्प्रयोजन
उनके
उनके घर के बारे में।