नियति
नियति
मैं कसकर
जकड़ लेती हूँ बंदिशों को
अपने आस-पास
बुनती हूँ संस्कारों का जाल
और उलझ जाती हूँ
सभ्यता का लबादा ओढ़कर |
यह जरुरी है मेरे लिए
क्योकि मैं औरत हूँ
मेरे प्रामाणिक होने की यही निशानी है |
मेरे अंदर की सोनचिरैया
फड़फड़ाती है पंख
अपने अस्तित्व की पहचान के लिए
किंतु मैं प्रतिपल
काटती हूँ उसका पंख
घोटती हूँ उसका वजूद
और जीती हूँ जीवनभर
शालीनता के पिंजरे में
घुट-घुट कर |