जीवन के चारों पहर में बचपन
जीवन के चारों पहर में बचपन
परिंदों की तरह पंख फैलाऎं।
अलमस्त गगन को छूने की चाह लिए।
दत्तचित्त बच्चें कर सकतें हैं पूरे नवभारत के सपनें।
देश की प्रगति है स्मितमुखी बच्चों से।
मंजुल स्वप्न साकार होंगे इन अभिराम बच्चों से।
मन से सच्चे आँखों में सँजोते बडे-बडे सपने।
नटखट नादानी करते स्वच्छंद जीवन जीते।
है इनका बचपन-
इंद्रधनुष सा रंगबिरंगा।
ममता के आँचल में पलता बढता।
फूलों की भांति महकता, अंशुमाली-सा चमकता।
पंछी के जैसे चहकता,तितली के जैसे बलखाता।
बचपन निस्तब्ध,मौन है होता, शब्दों के तीर नहीं चलाता।
क्योंकि होती है विचारों में परिपक्वता।
ये वो मुस्काते फूल हैं, जिन्हे आता नहीं मुर्झाना।
इन्हे तो बस आता है ,सुगम्यता से सबकी दुआएँ लेते चलना।
आओ-
बचपना भूला बचपन निभाएँ,
ता उम्र बचपन के सद्गुण अपनाएँ।
ताकि विच्युत ,विपथ न हो पाए।
और जीवन की सार्थकता सिद्ध हो जाए।
निज गौरव बढाएँ, स्वअस्तित्व की पहचान बनाएँ।
संकल्प के वेग से , सोता हुआ सागर जगाएँ।
जीवन के चारों पहर में ,बचपन की लौ जलाएँ।
निष्कपट ,निडर,प्रवीर जीवन हर उम्र का प्रतीक बन जाए।
तम को दूर रख बचपन से प्रकाशित हो जाएँ ।
आओ शांति और अमन का प्रतीक बन जाएँ ।I