फिर बन जाऊँ बच्चा
फिर बन जाऊँ बच्चा
रोज शाम थक कर जब
कदम घर की ओर बढ़ते हैं
सोचता है मन यह कि
जीने के लिए करता हूँ काम
यह जीवन काम करने को ही
गढ़ते हैं उथल-पुथल मन की बस
कभी घटती कभी बढ़ जाती है
ख़्यालों की नैया कभी डूबती कभी तैरती जाती है
कुछ अपने छोड़ आता हूँ वहीं
कुछ सपने हो लेते हैं संग
कभी घर खाली दीवारों का
मकान सा लगता है
तो कभी फूलों से बिखरे मिलते हैं रंग
तंग करते हैं अधूरे से सपने
और आज भी यही पूछते हैं
सपने देखे क्यों थे तूने ?
फिर कई सवाल मन में जूझते हैं
याद है मुझे ...हर शख्स पूछता
क्या बनेगा बड़े होकर बेटा ?
इंजीनियर डॉक्टर टीचर या नेता
अब जाकर मिला उस सवाल का जवाब
बिल्कुल सच्चा …
न इंजीनियर न डॉक्टर न टीचर न नेता
दिल बस यही चाहता है कि
बन जाऊँ फिर भोला सा बच्चा