मृग-मरीचिका
मृग-मरीचिका
बरबस सफल होते जाने की
यह चाह मनुज की
करवाती है कैसे-कैसे कर्म उसी से...
सफलता और प्रशंसा की मदिरा के वश में
मनुज तिमिर में खो जाता है;
सत्पथ से डिग,
कुमार्ग को कर शिरोधार्य
नृशंस कर्म कर जाता है।
आत्मा के अनर्गल प्रलाप को
अनसुना कर;
मान-सम्मान के अस्थायी झरोखों
का सुख भोगने को आतुर,
मनुष्य कालिख से रंग लेता
है स्वयं के कर।
बस फिर... विस्मृत हो जाती है
अंतर्मन में व्याप्त गीता की सीख,
मद में चूर,
अनसुनी कर बैठता है
अंतरात्मा की चीख।
और भांति इसी, स्वयं से
छिपते जाने के प्रयासों में एक समय,
यम दर्श दे देता है।
अंततः भयभीत,
हृदय से बिलखते हुए,
अश्रुओं से सराबोर दृग लेकर
हो जाते हैं प्राणांत..।