हम जो मोहब्बत कर बैठे थे
हम जो मोहब्बत कर बैठे थे
हम जो मोहब्बत कर बैठे थे
हम दिवाने उसके जो मोहब्बत कर बैठे थे
दरिया दिल को अपने भी समुन्द्र कर बैठे थे
मिल जाता शाहिल मुझको कही न कही इशारे पे
पर क्या जरूर थी मुझको उसके पीछे पीछे जाने की
आंखों की निर्दोषी आहे सिर्फ वो भरती रहती थी
मेरे इन पलकों को सिर्फ यूँही निहारती रहती थी
गर्दिश जमाने की मोहब्बत ने हमको बहुत कुछ लूटा
पर हम दिवाने कबीर के सिर्फ उसको बहुत कुछ सोचा
मोहब्बत के हम सच्चे साये बनकर यूँही बिखरते रहते थे
पर उसकी दुनिया की आहे बनकर यूँही सिसकते रहते थे
मिल जाती मोहब्बत उसकी इन दो पल्को की आँखों को
नही चाहते थे हम उसको लेकर साथ चलना इन राहों में
जिंदगी की सुकून नही थी उसके बिना अकेले जीना
पर किस्मत को सोचकर गुजारना था अपना पूरा शीना
मिले थे जब हम दोनोँ एक - दूजे से इन भरी सदाओं में
बिछड़े हम दोनोँ एक दूजे से जीवन मरण भरे फिजाओं में
आंहे उसकी दिल पर जब मोहब्बत बनकर लगी रही थी
हम भी दीवाने उसके मोहब्बत में सिर्फ बावरे बने रहते थे
साये कुछ जिंदगी के मेरे मुझको विलग किया करती रही
पर हम सांसों के सहारे उसके बिना अकेले अकेले जीते थे