लौटते बचपन में
लौटते बचपन में
बच्चे नहीं समझते
बड़ों का मायावी संसार
वे ठुमक कर चल देते हैं कहीं भी
उठा लेते हैं कुछ भी
खाते हुए झूठा उन्हें नहीं सूझता
जाति का बोध
गोदी में जाते हुए नहीं होता
मैले कपड़ों का अहसास
वे सिर्फ स्नेह की गंध को
पहचानते हैं
पंछी हैं वे बैठ जाते हैं किसी भी
डाल पर
चुग लेते हैं चॉकलेट
कुतर लेते हैं बिस्कुट
उनके दिलो दिमाग पर नहीं लिखा
भेदभाव की इबारत का ज़हरीला
इतिहास
काश हो जाये हमारी भी दुनिया
बच्चों सी मासूम और निश्छल
उसमें भी पसर जाए उनकी
किलकारियाँ
निर्दोष शैतानियाँ
नटखट चंचलताएँ
तो ले सकें सांस हम जी भर कर
ठहाके लगा सकें खुल कर
बहा सकें कागज़ की नावें
ढहा सकें रेत के घर
अहंकारों को बता कर धता
दीवारों को धकेल कर परे
बना सकें उल्लास और उमंग का नीड़
अपने नन्हे हाथों से
एक बार फिर लौटे बचपन तो
छतों के फासले लांघ
अमीरी के मांझे में
गरीबी की सद्दी लगा
उड़ा सकें सबसे ऊंची साझा पतंग...