ग़ज़ल
ग़ज़ल
1 min
279
तेरा जमाल, मुहब्बत मिरी निगाह में है।
तू इस तरह से भी तहरीर शम्स ओ माह में है।
तुझे यूँ भूलना मुमकिन नहीं किसी भी तौर।
तेरा वो अक्स अभी तक दिले तबाह में है।
ग़जब ये ढब तेरा,अंदाज़ ये फ़क़ीराना।
ज़माने भर की मुहब्बत तेरी पनाह में है।
मुझे निजात मिले मुझसे ये कहाँ मुमकिन।
मेरी ये इश्क़ो वफ़ा दामने गुनाह में है।
तमाम उम्र का हासिल है, तो है बस इतना।
मुझे क़रार फ़क़त उसकी जलवा गाह में है।
ज़माने को निभा देना कोई कमाल नहीं।
कमाल है कोई तो इश्क़ के निबाह में है।